৬৪৬

পরিচ্ছেদঃ

৬৪৬। আমীরুল মুমিনীন আলী (রাঃ) বলেছেন, আমি, ফাতিমা, আব্বাস ও যায়িদ বিন হারিসা রাসূলুল্লাহ সাল্লাল্লাহু আলাইহি ওয়াসাল্লামের নিকট সমবেত হলাম। আব্বাস (রাঃ) বললেনঃ হে রাসূল, আমি বুড়ো, হাড় জিরজিরে হয়ে গেছি। আমার ব্যয়ও বেড়ে গেছে। কাজেই হে রাসূল, আপনি যদি মনে করেন আমাকে স্বল্পমূল্যে এক ওয়াসাক খাদ্য শস্য দেয়ার আদেশ দেবেন, তাহলে দিন। রাসূলুল্লাহ সাল্লাল্লাহু আলাইহি ওয়াসাল্লাম বললেনঃ ঠিক আছে দিচ্ছি। এরপর ফাতিমা (রাঃ) বললেনঃ ইয়া রাসূলাল্লাহ, আপনি যদি মনে করেন, আপনার চাচার জন্য যেমন আদেশ দিয়েছেন, তেমনি আমাকে দেবেন, তাহলে দিন। রাসূলুল্লাহ সাল্লাল্লাহু আলাইহি ওয়াসাল্লাম বললেনঃ ঠিক আছে, দিচ্ছি। তারপর যায়িদ বিন হারিসা (রাঃ) বললেনঃ ইয়া রাসূলাল্লাহ, আপনি আমাকে এক টুকরো জমি দিয়েছিলেন, তা দ্বারা আমার জীবিকা নির্বাহ হতো। তারপর সেটা আবার আপনি ফেরৎ নিয়েছেন। এখন আপনি যদি সেটা আমাকে ফিরিয়ে দেয়া ভালো মনে করেন, তবে দিন। রাসূলুল্লাহ সাল্লাল্লাহু আলাইহি ওয়াসাল্লাম বললেনঃ বেশ, দিচ্ছি।

আলী (রাঃ) বলেন, এরপর আমি বললামঃ আল্লাহ তা’আলা তাঁর কিতাবে এই খুমুছ থেকে আমাদের জন্য যে প্রাপ্য নির্ধারণ করেছেন, সেই প্ৰাপ্য যদি আমাদেরকে দিতে চান, তবে দিন। তাহলে আমি আপনার জীবদ্দশায়ই তা বণ্টন করবো, যাতে আপনার পরে কেউ আমার সাথে ঝগড়া বিবাদ করতে না আসে। রাসূলুল্লাহ সাল্লাল্লাহু আলাইহি ওয়াসাল্লাম বললেনঃ ঠিক আছে দিচ্ছি। এরপর রাসূলুল্লাহ সাল্লাল্লাহু আলাইহি ওয়াসাল্লাম উক্ত প্ৰাপ্য আমার অধিকারে অর্পণ করলেন। আমি তার জীবিতাবস্থায় তা বণ্টন করলাম। পুনরায় আবু বাকর আমাকে তা অর্পণ করলেন। আমি তা তাঁর জীবিতাবস্থায় বণ্টন করলাম। পুনরায় উমার আমাকে উক্ত প্রাপ্য অৰ্পণ করলেন। আমি তাঁর জীবিতাবস্থায় তা বিতরণ করলাম। অবশেষে উমারের আমলের শেষ বছরগুলো এল। তখন তার কাছে প্রচুর সম্পদ জমা হতে লাগলো। [আবু দাউদ ২৯৮৩ ও ২৯৮৪]

حَدَّثَنَا مُحَمَّدُ بْنُ عُبَيْدٍ، حَدَّثَنَا هَاشِمُ بْنُ الْبَرِيدِ، عَنْ حُسَيْنِ بْنِ مَيْمُونٍ، عَنْ عَبْدِ اللهِ بْنِ عَبْدِ اللهِ، قَاضِي الرَّيِّ، عَنْ عَبْدِ الرَّحْمَنِ بْنِ أَبِي لَيْلَى، قَالَ: سَمِعْتُ أَمِيرَ الْمُؤْمِنِينَ عَلِيًّا يَقُولُ: اجْتَمَعْتُ أَنَا وَفَاطِمَةُ، وَالْعَبَّاسُ، وَزَيْدُ بْنُ حَارِثَةَ، عِنْدَ رَسُولِ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَقَالَ الْعَبَّاسُ: يَا رَسُولَ اللهِ، كَبِرَ سِنِّي، وَرَقَّ عَظْمِي، وَكَثُرَتْ مُؤْنَتِي، فَإِنْ رَأَيْتَ يَا رَسُولَ اللهِ أَنْ تَأْمُرَ لِي بِكَذَا وَكَذَا وَسْقًا مِنْ طَعَامٍ فَافْعَلْ. فَقَالَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: "نَفْعَلُ" فَقَالَتْ فَاطِمَةُ: يَا رَسُولَ اللهِ، إِنْ رَأَيْتَ أَنْ تَأْمُرَ لِي كَمَا أَمَرْتَ لِعَمِّكَ فَافْعَلْ. فَقَالَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: " نَفْعَلُ ذَلِكَ "، ثُمَّ قَالَ زَيْدُ بْنُ حَارِثَةَ: يَا رَسُولَ اللهِ، كُنْتَ أَعْطَيْتَنِي أَرْضًا كَانَتْ مَعِيشَتِي مِنْهَا، ثُمَّ قَبَضْتَهَا، فَإِنْ رَأَيْتَ أَنْ تَرُدَّهَا عَلَيَّ فَافْعَلْ، فَقَالَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: " نَفْعَلُ ذَاكَ " قَالَ: فَقَلتْ: أَنَا: يَا رَسُولَ اللهِ، إِنْ رَأَيْتَ أَنْ تُوَلِّيَنِي هَذَا الْحَقَّ الَّذِي جَعَلَهُ اللهُ لَنَا فِي كِتَابِهِ مِنْ هَذَا الْخُمُسِ، فَأَقْسِمُهُ فِي حَيَاتِكَ كَيْ لَا يُنَازِعَنِيهِ أَحَدٌ بَعْدَكَ، فَقَالَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: " نَفْعَلُ ذَاكَ " فَوَلانِيهِ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَقَسَمْتُهُ فِي حَيَاتِهِ، ثُمَّ وَلانِيهِ أَبُو بَكْرٍ فَقَسَمْتُهُ فِي حَيَاتِهِ، ثُمَّ وَلانِيهِ عُمَرُ فَقَسَمْتُ فِي حَيَاتِهِ، حَتَّى كَانَتْ آخِرُ سَنَةٍ مِنْ سِنِي عُمَرَ، فَإِنَّهُ أَتَاهُ مَالٌ كَثِيرٌ

إسناده ضعيف، الحسين بن ميمون وهو الخندفي الكوفي قال ابن المديني: ليس بمعروف قل من روى عنه، وقال أبو زرعة: شيخ، وقال أبو حاتم: ليس بقوي في الحديث، يكتب حديثه، وذكر ابن حبان في الثقات وقال: ربما أخطأ، وأورد البخاري في "التاريخ الكبير" حديثه هذا في ترجمته من طريق ابن نمير عن محمد بن عبيد بهذا الإسناد، وقال: وهو حديث لم يُتابع عليه، وكذا قال العقيلي وابن عدي
وأخرجه البزار (626) ، وأبو يعلى (364) من طريق محمد بن عبيد، بهذا الإسناد
وأخرجه ابن أبي شيبة 2/470، وعمر بن شبة في "تاريخ المدينة" 2/645-647، وأبو داود (2984) ، والبيهقي 6/343-344 من طريق عبد الله بن نمير، عن هاشم بن البريد، به
وأخرجه أبو داود (2983) ، والحاكم 2/128، والبيهقي 6/363 من طريق مطرف بن طريف، عن عبد الرحمن بن أبي ليلى، به. وصححه الحاكم ووافقه الذهبي، لكن ذكر الدارقطني في "العلل" 3/280: أن مطرفا لم يسمع من ابن أبي ليلى، بينهما رجل يقال له: كثير، وهو مجهول

حدثنا محمد بن عبيد، حدثنا هاشم بن البريد، عن حسين بن ميمون، عن عبد الله بن عبد الله، قاضي الري، عن عبد الرحمن بن ابي ليلى، قال: سمعت امير المومنين عليا يقول: اجتمعت انا وفاطمة، والعباس، وزيد بن حارثة، عند رسول الله صلى الله عليه وسلم، فقال العباس: يا رسول الله، كبر سني، ورق عظمي، وكثرت مونتي، فان رايت يا رسول الله ان تامر لي بكذا وكذا وسقا من طعام فافعل. فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "نفعل" فقالت فاطمة: يا رسول الله، ان رايت ان تامر لي كما امرت لعمك فافعل. فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم: " نفعل ذلك "، ثم قال زيد بن حارثة: يا رسول الله، كنت اعطيتني ارضا كانت معيشتي منها، ثم قبضتها، فان رايت ان تردها علي فافعل، فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم: " نفعل ذاك " قال: فقلت: انا: يا رسول الله، ان رايت ان توليني هذا الحق الذي جعله الله لنا في كتابه من هذا الخمس، فاقسمه في حياتك كي لا ينازعنيه احد بعدك، فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم: " نفعل ذاك " فولانيه رسول الله صلى الله عليه وسلم فقسمته في حياته، ثم ولانيه ابو بكر فقسمته في حياته، ثم ولانيه عمر فقسمت في حياته، حتى كانت اخر سنة من سني عمر، فانه اتاه مال كثير اسناده ضعيف، الحسين بن ميمون وهو الخندفي الكوفي قال ابن المديني: ليس بمعروف قل من روى عنه، وقال ابو زرعة: شيخ، وقال ابو حاتم: ليس بقوي في الحديث، يكتب حديثه، وذكر ابن حبان في الثقات وقال: ربما اخطا، واورد البخاري في "التاريخ الكبير" حديثه هذا في ترجمته من طريق ابن نمير عن محمد بن عبيد بهذا الاسناد، وقال: وهو حديث لم يتابع عليه، وكذا قال العقيلي وابن عدي واخرجه البزار (626) ، وابو يعلى (364) من طريق محمد بن عبيد، بهذا الاسناد واخرجه ابن ابي شيبة 2/470، وعمر بن شبة في "تاريخ المدينة" 2/645-647، وابو داود (2984) ، والبيهقي 6/343-344 من طريق عبد الله بن نمير، عن هاشم بن البريد، به واخرجه ابو داود (2983) ، والحاكم 2/128، والبيهقي 6/363 من طريق مطرف بن طريف، عن عبد الرحمن بن ابي ليلى، به. وصححه الحاكم ووافقه الذهبي، لكن ذكر الدارقطني في "العلل" 3/280: ان مطرفا لم يسمع من ابن ابي ليلى، بينهما رجل يقال له: كثير، وهو مجهول
হাদিসের মানঃ যঈফ (Dai'f)
পুনঃনিরীক্ষণঃ
মুসনাদে আহমাদ
মুসনাদে আলী ইবনে আবি তালিব (রাঃ) [আলীর বর্ণিত হাদীস] (مسند علي بن أبي طالب)